धनबाद। विदाई के वक्त ना तो सर रखकर रोने के लिए पिता का कांधा था, ना लिपटकर रोने के लिए मां की बाहें, ना शगुन के लिए कार को धक्का देने को भाई का बाजू था और ना विदाई गीत गाने वाली चाची, मासी और रिश्तेदार। इससे बड़ी एक बेटी की बेबसी और बदनसीबी क्या होगी, कि जिस बेटी को नाजों से मां ने पाला था, जिस भाई ने बड़े ही दुलार से बहन की शादी की तैयारी की थी, वो बहन को लाल जोड़े में विदा नहीं कर सका।

शादी की जिस बेला में बेटी की शगुन में मंगल गीत की गूंज होती है, उस वक्त घर में करुण चीत्कार गूंज रहा था। धनबाद के आशीर्वाद भवन में लगी आग ने दुल्हन स्वाति की जिंदगी में ऐसा मलाल भर दिया है, कि शायद ही वो इस पल को कभी भूल पाएगी। स्वाति की शादी के लिए सजा मंडप भी वीरान लग रहा था। हादसे के बारे में हर कोई जान रहा था, लेकिन मंडप हर कोई खुद को ऐसा जता रहा था, मानो सब कुछ ठीक हो। दुल्हन स्वाति को घटना के बारे में कुछ नही बताया गया था। लगभग 2 घंटे से ज्यादा समय तक वह शादी की तमाम रस्में पूरी करती रही। रस्में पूरी करते हुए उसकी निगाहें अपनी मां को तलाश रही थी।

आशीर्वाद भवन से महज कुछ ही दूरी पर शादी हो रही थी, लेकिन दुल्हन स्वाति को इसके बारे में कुछ भी नहीं बताया गया था । शादी की रस्म के दौरान दुल्हन स्वाति बार-बार मां और भाई के बारे में पूछ रही थी, लेकिन कभी तबीयत खराब होने का बहाना तो कभी गाड़ी के ना होने की बात का स्वाति को बताया जाता रहा। जब फेरे लिए जा रहे थे, तो ठीक पहले स्वाति एक बार विचलित सी दिखी। वह पास खड़ी महिलाओं को पूछती रही कि मां अभी तक क्यों नहीं आई है ? पिता मंडप के कुछ दूरी पर एक कोने में कुर्सी पर बैठे हुए थे। हाव भाव से भी स्वाति को कुछ अनहोनी का अहसास हो रहा था। वह बार-बार पिता की तरफ देखती और फिर इशारों से उन्हें पूछने की कोशिश करती। लेकिन पिता बार-बार डबडबाई आंखों को पोंछकर यह जताने की कोशिश करते रहे कि कुछ हुआ ही नहीं है।पिता की हालत तो यह थी कि जिस पिता ने कन्यादान के लिए पूरी तैयारी कर रखी थी, वो पिता कन्यादान ही नहीं कर पाया कन्यादान की रश्म दूर के भाई ने निभाई।

दुल्हन स्वाति को पिता को रोना शायद खुद की शादी की विदाई को लेकर महसूस हो रहे थे, स्वाति को थोड़ी सी भी इस बात की भनक नहीं थी, कि यह सिर्फ बिटिया की विदाई का दर्द नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के जलकर राख हो जाने का दुख है।

लिहाजा वह बहुत ज्यादा पिता के हावभाव पर ध्यान नहीं दे रही थी। इधर मंडप पर बैठी महिलाएं भी चुपचाप बैठी थी, लेकिन वह इस घटना के बारे में कुछ भी जिक्र नहीं कर रही थी। सब का मकसद यही था कि शादी में किसी तरह का कोई व्यवधान ना हो। शादी के पूरे फेरे हो जाने और विदाई के वक्त तक स्वाति को घटना के बारे में जानकारी नहीं दी गई।

शादी की तमाम रस्में लगभग 2:30 बजे रात पूरी होती हैं। इसके बाद से परिवार वाले इसी मंथन में लगे होते हैं कि विदाई कैसे कराई जाए। सभी कह रहे थे कि कई बहाने बनाकर मां की उपस्थिति के बिना शादी की रस्म तो पूरी हो गई लेकिन विदाई मुश्किल होगी। इसी उधेड़बुन में रात बीत जाती है।

सुबह के 5:00 बज रहे होते हैं और विदाई की रस्में शुरू होती हैं। इस दौरान स्वाति की सूनी आंखें बता रही होती है कि सब कुछ ठीक तो नहीं है, इस बात का उसे एहसास हो गया है। विदाई की रस्म के दौरान परिजन किसी भी तरह की बातचीत से पूरी तरह गुरेज करते हैं और हाथ जोड़कर यह आग्रह भी करते हैं उनकी बेटी की विदाई हो जाने दिया जाए।

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