कौन थीं संविधान सभा में पहुंचने वाली 15 महिलाएं?

कौन थीं संविधान सभा में पहुंचने वाली 15 महिलाएं?
आज़ाद भारत कैसा होगा और उसके नागरिकों के हक़ क्या होंगे, इसके लिए एक संविधान बनना था. इसे बनाने के लिए संविधान सभा बनी. लेकिन सवाल था कि इसे बनाएगा कौन?
क्या सिर्फ़ पुरुष बनाएँगे? नागरिक तो महिलाएँ भी हैं. संविधान सभा में 299 सदस्य थे. इनमें सिर्फ़ 15 महिलाएँ थीं. ये देश के अलग-अलग हिस्सों से आई थीं.इन्होंने पितृसत्तात्मक बंधन और स्त्रियों को जकड़ने वाली सामाजिक रीति-रिवाजों को चुनौती दी. आज़ादी के आंदोलन में हिस्सा लिया. इन सबका सामाजिक-राजनीतिक योगदान था.नए आज़ाद देश को बनाने में योगदान दिया. आज हम इन्हीं 15 महिलाओं की संक्षिप्त कहानी पेश कर रहे हैं.
दक्षयानी वेलायुधन (1912-1978)
दक्षयानी वेलायुधन संविधान सभा की इकलौती महिला दलित सदस्य थीं. उनका जन्म केरल और उस वक़्त के कोचीन राज्य में हुआ था.
वे दलित पुलय समुदाय की थीं. वह वक़्त ज़बरदस्त भेदभाव और ग़ैर बराबरी वाला था. इसकी वजह से पुलय समुदाय की महिलाओं को कमर से ऊपर बदन ढँकने की इजाज़त नहीं थी.
दक्षयानी के परिवार ने इस रिवाज को चुनौती दी. ऐसा माना जाता है कि वे न सिर्फ़ अपने समुदाय की, बल्कि दलितों में भी पहली महिला थीं, जिन्होंने कॉलेज की पढ़ाई की.
वे महात्मा गांधी से बेहद प्रभावित थीं. कस्तूरबा और महात्मा गांधी की मौजूदगी में छह सितंबर 1940 को उन्होंने समाज सुधारक आर वेलायुधन से शादी की. वे मद्रास प्रेसिडेंसी से कांग्रेस के टिकट पर संविधान सभा के लिए चुनी गई थीं. दक्षयानी संविधान सभा की सबसे युवा सदस्य थीं.
संविधान सभा में बहस के दौरान उन्होंने छुआछूत, आरक्षण, हिंदू-मुसलमान समस्या पर खुलकर अपनी बात रखी.
उन्होंने एक भाषण में कहा था कि भारतीय गणराज्य में जाति या समुदाय के आधार पर किसी तरह की कोई रुकावट नहीं होगी.
यही नहीं, वे जाति, समुदाय के आधार पर अलग चुनाव क्षेत्र के ख़िलाफ़ थीं. वे ताउम्र दलितों और वंचितों के हक़ के लिए आवाज़ उठाती रहीं.
दिल्ली में रहने के दौरान उन्होंने महिला सफ़ाई कर्मचारियों के साथ काम किया.
सुचेता कृपलानी (1908 -1974)
साल 1963 में भारत की पहली महिला मुख्यमंत्री (उत्तर प्रदेश की) बनने वाली सुचेता कृपलानी गांधीवादी थीं और भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान भूमिगत गतिविधियों में उनका ख़ासा योगदान रहा.
कांग्रेस की सदस्य रहते हुए उन्हें संविधान सभा के लिए नामंकित किया गया था.
वे यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड (यूसीसी) की पक्षधर थीं. इसमें हर धार्मिक समुदायों के लिए शादी, विरासत, तलाक़ और बच्चा गोद लेने के मुद्दों पर एक क़ानून की बात कही गई थी.
वर्ष 1946 में बंगाल के नोआखली (विभाजन के बाद बांग्लादेश में) में हुई हिंसा के बाद चलाए गए राहत कार्य में सुचेता कृपलानी की अहम भूमिका मानी जाती है.
वहीं उनके पति जेबी कृपलानी ने कांग्रेस छोड़कर साल 1951 में किसान मज़दूर प्रजा पार्टी (केएमपीपी) बनाई और सुचेता भी इसमें शामिल हो गईं. हालाँकि बाद में सुचेता कांग्रेस में लौट आईं.
केएमपीपी में रहते हुए सुचेता ने लोकसभा चुनाव लड़ा और नई दिल्ली से जीतीं भी.
सुचेता ने लोकसभा में पेश हुए हिंदू मैरिज बिल का समर्थन किया था, लेकिन साथ ही चेतावनी भी दी थी कि इस बिल से महिलाओं की स्थिति में बदलाव नहीं आ सकता.
वे संसद में पाकिस्तान से आए हिंदू और सिख शरणार्थियों की आवाज़ बनीं और साल 1959 में आए तिब्बती शरणार्थियों लिए बढ़-चढ़ कर राहत कार्यों में हिस्सा लिया.
भारत की आज़ादी की पूर्व संध्या पर सुचेता कृपलानी ने संविधान सभा में राष्ट्रीय गान और गीत गाया था.
सरोजिनी नायडू (1879-1949)
सरोजिनी नायडू बुलबुले हिंद या भारत कोकिला के तौर पर मशहूर हैं. उनका जन्म हैदराबाद में हुआ था.
सरोजिनी नायडू के कई रूप थे- कवि, स्त्री अधिकार कार्यकर्ता और स्वतंत्रता सेनानी.
उन्होंने अपनी पसंद से डॉ. गोविंदराजुलु नायडू से साल 1898 में शादी की. यह उस वक़्त चुनिंदा अंतरजातीय और अंतर क्षेत्रीय शादियों में एक थी.
वे कांग्रेस की पहली महिला अध्यक्ष थीं. वे गांधी जी की बेहद क़रीबी थीं और उन्होंने उनके साथ ताउम्र काम किया. दोनों के बीच के संबंध बेहद दोस्ताना थे.
सरोजिनी के अंदाज़-ए-बयाँ की तारीफ़ सभी करते थे. वो चाहती थीं कि महिलाओं को वोट देने का हक़ मिले. सरोजिनी नायडू स्वराज की हिमायती थीं.
वे संविधान सभा में बिहार से चुनी गई थीं. सरोजिनी हिंदू-मुसलमान एकता की पक्षधर और बँटवारे की विरोधी थीं. संविधान सभा के भाषण इसके गवाह हैं.
वे बाद में संयुक्त प्रांत की राज्यपाल नियुक्त की गईं.
विजय लक्ष्मी पंडित (1900-1990)
नेहरू परिवार में जन्मीं विजय लक्ष्मी पंडित को पहले लोग स्वरूप कुमारी के नाम से जानते थे.
अपने पिता मोतीलाल नेहरू की तरह वे राजनीतिक एक्टिविस्ट और समाज सुधारक गोपाल कृष्ण गोखले की प्रशंसक थीं.
साल 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरूआत हुई थी.
विजय लक्ष्मी पंडित को इलाहाबाद में कांग्रेस कमेटी की बैठक के दौरान गिरफ़्तार भी किया गया था.
यहीं से उनके राजनीतिक करियर ने शक्ल लेनी शुरू कर दी थी.
उन्होंने प्रांतीय चुनाव में कानपुर से जीत हासिल की थी.
ब्रितानी दमन के बारे में बताने के लिए विजय लक्ष्मी पंडित को अमेरिका भेजा गया. ऐसा गांधी के कहने पर किया गया.
उन्हें संयुक्त राष्ट्र महासभा में भारत के प्रतिनिधिमंडल का प्रमुख बनाया गया था.
उन्होंने दक्षिण अफ़्रीका में भारतीय मूल के लोगों के मानवाधिकार का मुद्दा उठाया. भारत लौटने पर उन्हें संविधान सभा का सदस्य बनाया गया.
वे उस समय के सोवियत संघ और अमेरिका में भारत की राजदूत भी रहीं और संयुक्त राष्ट्र महासभा की अध्यक्ष भी चुनी गईं.
वर्ष 1965 में भारत पर हुए पाकिस्तान के हमले के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने हथियारों की मदद के लिए उन्हें फ़्रांस भेजा था.
अपने भाई जवाहरलाल नेहरू की मौत के बाद उन्होंने फूलपुर सीट से उपचुनाव लड़ा और जीत भी हासिल की.
बेगम क़ुदसिया एज़ाज़ रसूल(1908-2001)
बात 1937 की है. वे संयुक्त प्रांत विधानसभा का चुनाव लड़ रही थीं. मौलानाओं ने उनके ख़िलाफ़ फ़तवा दिया.
फ़तवा था- जो स्त्री पर्दा नहीं करती है, उन्हें वोट देना ग़ैर इस्लामी है. यह स्त्री कोई और नहीं बेगम क़ुदसिया एज़ाज़ रसूल थीं.
उन्होंने पर्दा त्याग दिया था. यही नहीं, एक बार उन्होंने अपने पति नवाब एज़ाज़ रसूल से कहा था, “मैं उन लोगों के आमंत्रण मंज़ूर नहीं करूँगी, जो अपने घर की स्त्रियों को पर्दे में रखते हैं. यह शर्त हिंदुओं और मुसलमानों पर एक जैसी लागू होगी.”
वे लंबे समय तक मुस्लिम लीग से जुड़ी थीं. बाद में वे कांग्रेस में शामिल हो गईं. आज़ादी और बँटवारे के बाद उन्होंने भारत में रहना तय किया.
वे महिला शिक्षा की पैरोकार थीं. यही नहीं, उनका मानना था कि बच्चे-बच्चियों को तालीम उनकी मातृभाषा में देना चाहिए.
वे मूल अधिकार और स्त्री-पुरुष समानता की हिमायती थीं. वह लंबे समय तक ऑल इंडिया वीमेंस हॉकी एसोसिएशन की अध्यक्ष रहीं और महिला हॉकी को सम्मान दिलाने के लिए लगातार काम करती रहीं
हंसा मेहता (1897-1995)
गुजरात में जन्मीं हंसा मेहता एक महिलावादी, समाज सुधारक और समानता की पैरोकार थीं.
इसका उदाहरण मानवाधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र के आयोग (UNHCR) में उनकी भूमिका से मिलता है.
हंसा ने भारतीय प्रतिनिधि रहते हुए आयोग के ढाँचे को लैंगिक रूप से समान बनाने पर ज़ोर दिया.
मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा (UDHR) के अनुच्छेद 1 कहा गया था कि सभी पुरुष स्वतंत्र और समान पैदा होते हैं.
उन्होंने इस भाषा का विरोध किया और इस वाक्य के इस्तेमाल पर ज़ोर दिया कि “सभी मनुष्य स्वतंत्र और समान पैदा होते हैं.”
लंदन पढ़ाई करने गईं हंसा मेहता की मुलाक़ात वहाँ सरोजिनी नायडू से हुई और वो उनकी मार्गदर्शक बनीं.
महात्मा गांधी से उनकी मुलाक़ात साबरमती जेल में हुई थी. शुरुआत में वे महिलाओं के अधिकारों और शिक्षा को लेकर काम कर रही थीं, लेकिन फिर वे स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ गईं.
उन्होंने शराबबंदी और असहयोग आंदोलन में हिस्सा लिया.
वे भगिनी समाज का प्रतिनिधित्व करती थीं और उन्होंने बाल विवाह को अमान्य करार देने के लिए संशोधन लाने पर ज़ोर दिया.
वे संविधान सभा की मौलिक अधिकारों के लिए बनी उप-कमेटी की सदस्य भी थीं और उन्होंने यूसीसी लाने की वकालत की थी.
वे यूनेस्को के बोर्ड की सदस्य भी रहीं.
कमला चौधरी (1908 -1970)
अपनी कहानियों और कविताओं में कमला चौधरी ने पितृसत्तात्मक सोच, नारीवाद और लैंगिक समानता जैसे मुद्दों को उठाया.
साथ ही 80 साल पहले उन्होंने मेंटल हेल्थ की अहमियत के बारे में लिखा, जिसे हाल के वर्षों में ही समाज ने जाना और समझा है.
उत्तर प्रदेश से आने वाली कमला चौधरी की शादी 15 साल की उम्र में हो गई थी.
उनके पति ब्रितानी सरकार में काम करते थे. लेकिन आज़ादी के आंदोलन के लिए उन्होंने अपने पति को भी प्रोत्साहित किया.
सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान वे कांग्रेस में शामिल हो गईं. वे महिला चरखा संघ की सचिव बनीं और कई बार जेल भी गईं.
संविधान सभा की सदस्य बनने पर उन्होंने बहस के दौरान हिंदू कोड बिल का समर्थन किया था.
उनका कहना था ये महिलाओं के अधिकारों के लिए कारगर होगा. उन्होंने बिल में बहु विवाह के प्रावधान को हटाने का समर्थन किया था.
वे इस बिल को हिंदू विरोधी बताए जाने को लेकर सहमत नहीं थीं. इस बिल का इसलिए भी विरोध हुआ, क्योंकि इसमें विरासत में बेटियों को संपत्ति में बराबर के अधिकार की भी बात कही गई थी.
साल 1962 में कमला चौधरी ने लोकसभा की हापुड़ सीट से चुनाव जीता था.
पूर्णिमा बनर्जी (1911-1951)
आज़ादी के आंदोलन की सक्रिय भागीदार, अरुणा आसफ़ अली की बहन पूर्णिमा बनर्जी जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी की बेहद क़रीबी थीं.
पूर्णिमा का जन्म पूर्वी बंगाल यानी आज के बांग्लादेश के बारिसाल में हुआ था.
आज़ादी के आंदोलन के दौरान वे जेल गईं. जेल की वजह से उनकी सेहत पर भी असर पड़ा.
संविधान सभा के सदस्य के तौर पर उन्होंने कई मौक़ों पर सक्रिय हस्तक्षेप किया.
पूर्णिमा बनर्जी को समाजवादी ख़्यालों का माना जाता था.
मूल अधिकार और स्कूलों में धार्मिक शिक्षा देने पर उनकी राय अलग थी.
उनका कहना था कि सरकारी मदद से चलने वाले शैक्षणिक संस्थानों में सभी धर्मों के बारे में बताना चाहिए. क्योंकि इससे विद्यार्थियों के सोच-समझ के दायरे का विस्तार होगा.
यही नहीं, उनका मानना था कि सरकार की मदद से चलने वाले किसी भी शैक्षणिक संस्थान में अल्पसंख्यक समुदायों के साथ भेदभाव नहीं होना चाहिए.
मालती चौधरी (1904-1998)
मालती चौधरी संविधान सभा के लिए उड़ीसा (ओडिशा) से चुन कर आई थीं.
वे महात्मा गांधी और रबींद्रनाथ टैगोर से प्रभावित थीं.
वे शांति निकेतन में सबसे पहले पढ़ने वाली लड़कियों में से एक थीं. उन्होंने नबाकृष्णा चौधरी से पसंद की शादी की.
वे कांग्रेस के आंदोलन में सक्रिय भागीदार थीं. उनकी वजह से आज़ादी के आंदोलन में उड़ीसा में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी.
उनके नेतृत्व में ढेनकनाल में किसानों का बड़ा आंदोलन हुआ. भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान वे जेल गईं.
संविधान सभा में वे थोड़े वक़्त ही रहीं. आज़ादी के ठीक पहले नोआखली में दंगा हुआ था.
गांधी जी वहाँ अमन के लिए गाँव-गाँव दौरे कर रहे थे. मालती चौधरी ने संविधान सभा से इस्तीफ़ा दिया और गांधी जी के साथ नोआखली के दंगा प्रभावित इलाकों में काम करने के लिए चली गईं.
इस कारण गांधी जी उन्हें ‘तूफ़ानी’ कहते थे.
वे ताउम्र समाज के वंचितों के लिए काम करती रहीं. साल 1975 में लगे आपातकाल का पति-पत्नी ने विरोध किया. दोनों को जेल जाना पड़ा.
लीला रॉय (1900 -1970)
लीला रॉय क्रांतिकारी समूह श्री संघ की कार्यकारिणी और उसका संचालन करने वाली पहली महिला थीं.
वे मूल रूप से सिलहट (अभी बांग्लादेश में है) से थीं. कॉलेज में पढ़ाई के दौरान उन्होंने असहयोग आंदोलन के बारे में जाना था.
उन्होंने यूनिवर्सिटी ऑफ़ ढाका में पढ़ाई की. वे महिलाओं को मतदान का अधिकार देने वाले आंदोलन से जुड़ीं.
उन्होंने उत्तर बंगाल में सुभाषचंद्र बोस की पहल पर बनी बाढ़ राहत समिति के लिए भी काम किया.
साथ ही उन्होंने 12 दोस्तों के साथ महिला एसोसिएशन, दीपाली संघ बनाया. इसका काम लड़कियों को शिक्षित करना था. इसके बाद वे श्री संघ में शामिल हो गईं.
इस संगठन में महिलाओं को बम बनाना, हथियारों को एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाना और पर्चे बाँटने का काम दिया गया.
दीपाली संघ ने अपना मुखपत्र जयश्री पत्रिका निकाला, जिसे नाम रबिंद्रनाथ टेगौर ने दिया था.
लेकिन फिर श्री संघ और दीपाली संघ पर पाबंदी लग गई.
लीला को जेल में डाल दिया गया. रिहाई के बाद लीला की मुलाक़ात सुभाषचंद्र बोस से हुई और वे उनकी पार्टी फ़ॉरवर्ड ब्लॉक में शामिल हो गईं.
इसके बाद वे संविधान सभा की सदस्य बनीं. लेकिन वे विभाजन के विचार से काफ़ी दुखी थीं.
जब उन्हें पता चला कि विभाजन का कोई विकल्प नहीं है, तो उन्होंने संविधान सभा से इस्तीफ़ा दे दिया.
वे नोआखली (अब बांग्लादेश) गईं और दंगों से प्रभावित लोगों के लिए राहत शिविर स्थापित किए.
दुर्गाबाई देशमुख (1909-1981)
आंध्र प्रदेश के काकीनाड़ा में जन्मीं दुर्गा के माता-पिता समाज सेवक थे.
दुर्गा पर उनके काम की गहरी छाप थी. उन्होंने देवदासी और मुसलमान महिलाओं के पर्दा करने की प्रथा के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ महात्मा गांधी तक पहुँचाई.
गांधी ने देवदासी प्रथा को ख़त्म करने और मुसलमान महिलाओं के लिए सुधार की बात कही.
दुर्गा की असरदार हिंदी को देखते हुए गांधी ने आयोजकों से आंध्र प्रदेश और मद्रास में उन्हें ही अनुवादक रखने को कहा.
दुर्गा उसूलों की इतनी पक्की थी कि उन्होंने एक प्रदर्शनी में जवाहरलाल नेहरू के टिकट न होने पर उन्हें एंट्री देने से मना कर दिया था.
आठ साल में ही उनकी शादी हो गई थी और 15 साल की उम्र में उन्होंने अपनी पहचान बना ली थी.
इसी उम्र में जब उनका गौना हुआ, तो उन्होंने इससे इनकार कर दिया था.
वे अपनी माँ के साथ दक्षिण में हुए नमक सत्याग्रह में शामिल हुईं और जेल भी गईं.
दुर्गा ने मद्रास यूनिवर्सिटी से क़ानून में डिग्री ली और चार साल में ही वकालत में नामी चेहरा बन गईं.
संविधान सभा का सदस्य बनने के बाद उन्हें स्टीयरिंग कमेटी का सदस्य बनाया गया और वल्लभभाई पटेल ने उन्हें प्रस्तावित संशोधनों की समीक्षा करने की ज़िम्मेदारी दी थी.
साथ ही स्पीकर की ग़ैर मौजूदगी में वे सदन की कार्यवाही चलाने के लिए अध्यक्षता कर सकती थीं. वे हिंदू कोड बिल के लिए बनी चयन समिति की सदस्य थीं.
दुर्गाबाई देशमुख ने हिंदी की जगह हिंदुस्तानी को राष्ट्रीय भाषा बनाने की वकालत की.
शिक्षा के क्षेत्र और लोगों के उत्थान के लिए उन्हें कई सम्मान दिए गए, जिनमें यूनेस्को वर्ल्ड पीस मेडल से लेकर पद्म विभूषण शामिल हैं.
रेणुका रे (1904-1997)
पबना (अभी बांग्लादेश में) में जन्मीं रेणुका की मुलाक़ात गांधी जी से कोलकाता में एक रिश्तेदार के घर पर हुई.
इस मुलाक़ात ने रेणुका के जीवन की दिशा ही बदल दी. वे असहयोग आंदोलन के सिलसिले में वहाँ थे.
वे अपनी सहेली के साथ कॉलेज छोड़ स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हो गईं और गांधी ने उन्हें घर-घर जाकर चंदा इकट्ठा करने को कहा.
रेणुका ने गांधीजी की कई बैठकों का आयोजन किया, जिनमें महिलाएँ भी शामिल हुईं. लेकिन फिर वे लंदन पढ़ाई करने चली गईं.
रेणुकी वापस लौटीं और बर्दवान और हुगली में महिलाओं के कल्याण के लिए काम करना शुरू किया.
रबींद्रनाथ टेगौर ने उनके जीवन पर ख़ासा प्रभाव डाला और उन्होंने रेणुका को विश्व भारती यूनिवर्सिटी में एक्जीक्यूटिव काउंसिल के लिए नामांकित किया.
उन्होंने ग्रामीण भारत को समझने का श्रेय गांधी और टेगौर को दिया.
हिंदू लॉ समिति के अध्यक्ष सर बीएन राउ ने सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली में महिला संगठन का प्रतिनिधित्व करने की ज़िम्मेदारी रेणुका को दी थी.
संविधान सभा का सदस्य बनने के बाद रेणुका ने हिंदू कोड बिल, देवदासी प्रथा, संपत्ति का अधिकार आदि पर हुई बहस में भाग लिया.
साथ ही विधानसभा और संसद में महिलाओं के आरक्षण का विरोध किया.
उनका तर्क था कि आरक्षण महिलाओं के विकास में बाधा बनेगा. वे विभाजन के बाद शरणार्थियो के लिए भी काम करती रहीं.
पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री रहे डॉ. बीसी रॉय ने उन्हें पुनर्वास मंत्री बनने और कैबिनेट में शामिल होने का प्रस्ताव दिया था. वे मालदा लोकसभा सीट से चुनीं गईं थीं.
राजकुमारी अमृत कौर (1889 -1964)
शाही परिवार में जन्मीं अमृत कौर ने अपने जीवनकाल के तीन दशक में महात्मा गांधी के सहयोगी के तौर पर काम किया.
ये दौर महिलाओं के अधिकारों और स्वतंत्रता आंदोलन का अहम पड़ाव था.
अमृत के घर पर कांग्रेसी नेताओं का आना-जाना लगा रहता था. कांग्रेस नेता गोपाल कृष्ण गोखले उनके पिता हरनाम सिंह के गहरे दोस्त थे.
गोखले के कारण ही अमृत कौर में ब्रितानी राज से आज़ादी का जुनून पैदा हुआ था.
बॉम्बे में कांग्रेस की बैठक के दौरान उनकी मुलाक़ात गांधी से हुई थी.
उन पर गांधीवादी विचारधारा की इतनी गहरी छाप पड़ी कि वे साबरमती आश्रम भी गईं. वे ऑल इंडिया वर्किंग कॉन्फ्रेंस के संस्थापक सदस्यों में से एक थीं.
गांधी ने अमृत को त्रावणकोर के दीवान को हटाने को लेकर चल रहे मतभेद को सुलझाने के लिए भेजा था.
राजकुमारी अमृत कौर ने गुजरात में छुआछूत के बारे में लोगों को जागरूक करने का भी काम किया.
अरूणा आसफ़ अली ने अमृत पर अपनी किताब में लिखा था कि कांग्रेस कार्यकारी कमेटी की बैठक में किसी महिला को शामिल न करने को लेकर अमृत ने जवाहरलाल नेहरू की आलोचना की थी, जिसके बाद सरोजिनी नायडू को बैठक में शामिल किया गया था.
वे नमक सत्याग्रह को लेकर जेल गईं और भारत छोड़ो आंदोलन में भी भाग लिया. वे संविधान सभा की सदस्य बनीं, जहाँ उन्होंने यूसीसी लाने की बात कही.
अमृत कौर नेहरू कैबिनेट में स्वास्थ्य मंत्री बनीं. स्वास्थ्य मंत्री रहते हुए उन्होंने मलेरिया और कुष्ठ रोग जैसी अन्य बीमारियों को लेकर पायलट कार्यक्रम चलाए.
भारत में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान(एम्स) को स्थापित करने का बिल अमृत कौर ही लाईं थीं.
एनी मैसकेरीन(1902-1963)
एनी मैसकेरीन त्रावणकोर और कोचिन रियासत से संविधान सभा की सदस्य बनी थीं.
उन्होंने इतिहास और अर्थशास्त्र में दो एमए की डिग्री हासिल की. इसके बाद वे पढ़ाने के लिए सिलोन (श्रीलंका) चली गईं.
कुछ समय बाद वे त्रावणकोर वापस लौटीं. उन्होंने वहाँ सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा लेना शुरू किया.
वे आज़ादी के आंदोलन की भागीदार बनीं और जेल भी गईं.
उन्होंने संविधान सभा की बहस में एक जगह कहा कि लोगों के पास बिना किसी नियंत्रण, निर्देश और निगरानी के अपने जन प्रतिनिधि चुनने का हक़ होना चाहिए.
उनका कहना था- हम लोकतंत्र के सिद्धांत बना रहे हैं. यह सिद्धांत सिर्फ़ चुनाव के लिए नहीं बल्कि यह आने वाली पीढ़ियों के लिए हैं. राष्ट्र के लिए है.
वे हिंदू कोड बिल के लिए बनी समिति की सदस्य भी थीं. साल 1951 में वह केरल के तिरुअनंतपुरम से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में सांसद चुनी गईं थीं.
अम्मू स्वामीनाथन (1894-1978)