रांची: झारखंड कैबिनेट ने 1932 के खतियान को मंजूरी तो दे दी है, लेकिन इसे लागू कराना काफी चुनौतीपूर्ण होने वाला है। पूर्व की भांति 1932 की स्थानीय नियोजन नीति को सड़क से लेकर सियासी गलियारे तक विरोध तो झेलना तय है ही…कोर्ट में भी इसे चुनौती दिया जाना पक्का माना जा रहा है। अभी से ही कई जानकार राज्य सरकार के इस कदम को कानूनी तौर पर सही नहीं ठहरा रहे हैं। याद होगा 2002 में भी इसी तरह से 1932 का खतियान लागू किया गया था, जिसे खारिज कर दिया गया था।

कानून के जानकारों का कहना है कि 1932 के खतियान के आधार पर स्थानीय नीति बनाना उचित नहीं है। अगर इसे हाई कोर्ट में चुनौती दी गई तो यह कानून की कसौटी पर खरा नहीं उतरेगा और इसे निरस्त कर दिया जाएगा। अगर 1932 का खतियान लागू हुआ तो रांची, धनबाद, जमशेदपुर और बोकारो जैसे बड़े शहरों में रहने वाले बड़ी संख्या में लोग स्थानीय होने की शर्त पूरी नहीं कर पाएंगे और वे बाहरी हो जाएंगे। कानून के जानकारों के मुताबिक मौजूदा परिस्थिति में प्रतीत हो रहा है कि बिना  शर्तों का पालन किए बिना ही आनन-फानन में सरकार ने इस तरह का फैसला लिया है। इसके हाई कोर्ट में नहीं टिकने की आशंका है। सुप्रीम कोर्ट के अनुसार एक अपवाद और विशेष परिस्थिति में लागू किया जा सकता है। लेकिन, कैबिनेट से मंजूर हुआ 1932 का खतियान उन शर्तों पर फिट है या नहीं, ये अभी तय नहीं है। 

असर क्या : सरकारी सुविधाओं से वंचित हो जाएंगे


जो लोग वर्षों से झारखंड में रह रहे हैं, लेकिन खतियान में नाम नहीं है, वे कई तरह की सरकारी सुविधाओं से वंचित हो सकते हैं। मसलन स्थानीय के लिए आरक्षित नाैकरी या शैक्षणिक पाठ्यक्रमो में नौकरी के लिए आवेदन नहीं दे पाएंगे। स्थानीय के लिए शुरू हाेने वाली योजनाओं का लाभ नहीं उठा पाएंगे। अगर सरकार स्थानीयता की परिभाषा तय करते समय खतियान के अलावा दूसरी शर्तें जोड़ती हैं तो वे शर्ते पूरी करने वाले स्थानीय हो सकते हैं। मसलन झारखंड में पढ़ने वाले, यहां नौकरी करने वाले या अन्य।

2014 में परिभाषित हुई थी स्थानीयता

  • स्थानीयता कों लेकर विवाद 2002 में तत्कालीन मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी के समय शुरू हुआ, जब उन्होंने 1932 के खतियान को आधार बनाने की कोशिश की।
  • अर्जुन मुंडा के मुख्यमंत्रित्व काल में सुदेश महतो की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय कमेटी बनी, लेकिन इसकी रिपोर्ट पर कुछ नहीं हो पाया।
  • 2014 में मुख्यमंत्री रघुवर दस ने पहली बार स्थानीय नीति को परिभाषित किया। इसमें 1985 से झारखंड में रहने वालों को स्थानीय माना, अगर वे जमीन खरीदकर यहां बस गए हो या उनके बच्चो ने पहली से मैट्रिक तक की पढ़ाई झारखंड में की हो। या फिर राज्य के केंद्र सरकार के कर्मचारी हों।

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