होली में गुलाल लगाने की पीछे क्या है मान्यता…? जानें कब हुई इसकी शुरुआत
हमारे देश में मनाई जाने वाली होली, भारतीय समाज में आपसी प्रेम और भाईचारा बढ़ाने के लिए सार्वजनिक रूप से मनाया जा रहे अनेक उत्सव में से एक है। होली के इस त्यौहार के दौरान सभी लोग आपस में मिलकर प्रेम और समानता का जश्न मनाते हैं, एक दूसरे पर अबीर गुलाल के पाउडर के घोल को होलिका दहन के बाद आने वाली रंग पंचमी के दिन सामूहिक रूप से नाचते और गाते समय एक दूसरे पर लगाते और फेंकते हैं। यह उत्सव लोगों के मन से संदेह, नफरत और शत्रुता के मैल को धो देता है, एक-दूसरे के प्रति दूषित विचारों को ‘रंग खेल’ कर साफ कर देता है।
गुलाल की यह परंपरा राधा और कृष्ण के प्रेम से हुई थी। कहते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण अपनी बचपन में अपनी माता यशोदा से अपने सांवले और राधा के गोरे होने की शिकायत किया करते थे. श्रीकृष्ण माता से कहते थे कि मां राधा बहुत ही सुंदर और गोरी है और मैं इतना काला क्यों हूं?
माता यशोदा उनकी इस बात पर हंसती थी और बाद में उन्होंने एक दिन भगवान श्रीकृष्ण को सुझाव दिया कि वह राधा को जिस रंग में देखना चाहते हैं उसी रंग को राधा के मुख पर लगा दें. भगवान श्रीकृष्ण को यह बात पसंद आ गई. वैसे भी श्रीकृष्ण काफी चंचल और नटखट स्वभाव के थे, इसलिए वह राधा को तरह-तरह के रंगों से रंगने के लिए चल दिए और श्री कृष्ण ने अपने मित्रों के साथ राधा और सभी गोपियों को जमकर रंग लगाया
गुलाल, जिसे अबीर के रूप में भी जाना जाता है, बोली भाषा में इसे अबीर गुलाल भी कहते हैं, पारंपरिक हिंदू रीति-रिवाजों के लिए इस्तेमाल होने वाले नैसर्गिक रंगों से बने रंगीन पाउडर का पारंपरिक नाम है। होली के त्योहार के लिए अबीर गुलाल का विशेष महत्व है। नैसर्गिक रंग हमारी त्वचा को खराब नहीं करते बल्कि उनका प्रयोग करना त्वचा के लिए फायदा देने वाला होता है।
पुराने जमाने में, मन को लुभाने वाले विविध रंग केवल निसर्ग द्वारा निर्मित फल-फूल जड़ी-बूटी बेल के द्वारा ही प्राप्त होते थे। हमारे देश के लोग हमेशा से ही निसर्ग के करीब रहते आ रहे हैं। दैनिक जीवन में हमारे द्वारा प्रयोग नित्य उपयोगी वस्तुए ही नहीं अपितु हमारे घर, खाने पीने के बर्तन, और रुई के बने कपड़े, गद्दिया, तौलिए इत्यादि सब कुछ नैसर्गिक वस्तुओं से बना अर्थात नैसर्गिक होता था, उस समय के लोगों के जीवन में जो भी उत्पाद किसी भी कारण के लिए प्रयोग में लाए जाते थे वह सब केवल नैसर्गिक थे। हमारी संस्कृति में उस समय कृत्रिम वस्तुएं, कृत्रिम रंग, अलग-अलग रंगों के जहरीले रसायन समाज में उपलब्ध ही नहीं थे।
सौजन्य क्योरा