झारखंड नवरात्रि के मौके पर आदिवासी समाज का एक पारंपरिक नृत्य जो आपका मन मोह लेगा। हर साल नवरात्रि के मौके पर ये संथाली नृत्य जिसमें पारंपरिक वेशभूषा के साथ में एक टोली बनाकर हर घर के दरवाजे पर पहुंचती है। नृत्य टोली का इंतजार सभी घरवाले,दुकानवाले करते हैं। ढोल, मांदर, झाल और पारंपरिक वेशभूषा के साथ यह टोली गांव – गांव शहर शहर, हर कॉलोनी के दरवाजे पर बुलाए जाते हैं ।क्योंकि नवरात्र के मौके पर इस पारंपरिक नृत्य टोली का घर के दरवाजे पर आगमन काफी शुभ माना जाता है।

पारंपरिक नृत्य करते आदिवासी समाज जिसे माना जाता है शुभ

प्रकृति पूजक होते है आदिवासी

इस टोली में कम से कम 15-20 की संख्या में हर उम्र के लोग मौजूद रहते है।सभी पारंपरिक भेष भूषा के साथ प्रकृति की स्मृति चिन्ह शरीर पर लगाए रहते हैं। टोली निकलने से पूर्व अपने पुरोहित के साथ काफी लंबी प्रकृति पूजा करने के बाद अपने गांव से निकलते हैं। आदिवासी के हरेक पर्व-त्योहार में प्रकृति की छटा रहती है तभी उन्हें प्रकृति का उपासक माना जाता है।और आज भी आदिवासी जंगलों में वास करते हैं। आज विश्व भर में प्रकृति पूजक के रूप में आदिवासी को हीं याद किया जाता है।

ऐसा नृत्य जो आपने पहले कभी नहीं देखा होगा

विश्वभर में नृत्य कि अलग-अलग विधि और कलाएं हैं। परंतु यह आदिवासी समाज की नृत्य अपने आप में एक अनोखी झलक पेश करती है। सभी सदस्य एक साथ लोकगीत की धुन पर नृत्य की अलग अलग कला पेश करते हैं, लेकिन सभी की सुर और ताल एक जैसी होती है। यह विधाएं उनको विरासत में मिलती है और यही वजह है की इस नृत्य को देखने के लिए लोग उमड़ पड़ते हैं। जिस ओर से भी ये टोली गुजरती है नृत्य टोली के पीछे दर्शकों का जमावड़ा लगा रहता है।

इस खास नृत्य टोली को क्यों माना जाता है शुभ

संसार में सभी को प्रकृति का एक पार्ट माना जाता है। आदिवासी समाज सबसे ज्यादा प्रकृति पूजक माने जाते हैं। नवरात्र के शुरू होते हीं ये समाज अपने खास तरीके मां दुर्गा की आराधना करते हैं।उसके बाद पांचवीं पूजा के बाद ये टोली गांव से बाहर निकलती हैं। जबतक ये टोली को देख न लें तब तक काफी इंतजार रहता है। टोली नृत्य करते हुए हरेक रास्ते से गुजरती है।

शुभ नृत्य पेश करते आदिवासी समाज के लोग

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