झारखंड बीजेपी में नेतृत्व की तलाश: कार्यकर्ताओं के सवाल, सरदारों के दावे
Search for leadership in Jharkhand BJP: Questions from workers, claims from leaders

रांची: झारखंड की भाजपा इन दिनों “एक पार्टी, अनेक अध्यक्ष” के चक्रव्यूह में फंसी है। प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी एक ऐसी लॉटरी बन गई है, जिसमें हर कोई खुद को पहला टिकटधारी मान रहा है। पार्टी के भीतर हालात ऐसे हैं जैसे कोई मैच चल रहा हो, लेकिन कप्तान तय नहीं है—बल्ला सब घुमा रहे हैं, रन कोई नहीं बना रहा।
पार्टी के अंदरूनी गलियारों में तो अब यह कहावत मशहूर हो गई है—“जिसकी लाठी, उसकी प्रदेश अध्यक्षी!”
यहां हर नेता खुद को भावी अध्यक्ष मान बैठा है। कोई “संथाल का सबसे बड़ा सेवक” बन रहा है, तो कोई “ओबीसी के हितों का ठेकेदार”। कोई “राज्यपाल से वापसी कर जनता से सीधी बात” कर रहा है, तो कोई “सिर्फ मुद्दों की राजनीति” कर रहा है—चाहे जनता को समझ आए या फिर न आए।
भाजपा में इस वक्त हाल कुछ ऐसा है कि
“जहां चार भाजपाई जुटे, वहीं पांच विचार पनपे!”
रघुवर बाबू हैं तो अर्जुन मुंडा भी मैदान में, बाबूलाल मरांडी ने नैतिकता का पत्ता फेंका, तो आदित्य साहू और अमर बावरी भी कतार में हैं—सबके पास अपने-अपने तर्क, अपने-अपने आकाओं का आशीर्वाद और अपने-अपने समर्थकों की भीड़ है।
अंदरखाने से खबर यह भी है कि झारखंड भाजपा अब “एक पार्टी, कई पार्टियों का महासंघ” बन गई है—हर गुट का अपना अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, और सोच।
“गांव में एक मुखिया नहीं बनता, यहां हर वार्ड में एक मुख्यमंत्री बैठा है!”
जिला अध्यक्ष बनेंगे या नहीं, मंडल बचेगा या मंडलियों में ही सिमट जाएगा, यह भी साफ नहीं है। बताया जा रहा है कि जब 50% संगठन तैयार हो जाएगा, तब नए अध्यक्ष का चुनाव होगा। अब सवाल है—“बचे हुए 50% को तैयार करेगा कौन?”
इधर कार्यकर्ता बेचारे कन्फ्यूज हैं—कार्यक्रम करना है या केवल पोस्टर चिपकाना है? क्योंकि दिशा ऊपर से आ नहीं रही और नीचे से कोई पूछ नहीं रहा। मकर संक्रांति बीत गई, मानसून सत्र भी निकल गया, अब “श्रावण” में प्रदेश अध्यक्ष की नियुक्ति की बात हो रही है
कड़िया मुंडा जैसे वरिष्ठ नेता खुलेआम कह रहे हैं—”फला नेता पर आदिवासी भरोसा नहीं करते”, तो कुछ नेता “चमत्कारी योगदान” के अभाव में फिलहाल राजनीतिक वनवास में भेजे जा सकते हैं। संगठन अब नफा-नुकसान की इतनी बारीक गणित में उलझा है कि शायद नए प्रदेश अध्यक्ष की घोषणा से पहले “पीएचडी इन पॉलिटिकल मैथमेटिक्स” अनिवार्य कर दी जाए!
अमित शाह के दौरे से भी ज्यादा कुछ निकला नहीं। मुलाकातें हुईं, तस्वीरें आईं, लेकिन जनता को जवाब अब भी नहीं मिला—“कप्तान कौन?”
झारखंड बीजेपी फिलहाल उस बैलगाड़ी जैसी हो गई है, जिसमें बैल चार हैं, लेकिन रस्सी अलग-अलग दिशा में बंधी है। गाड़ी वहीं अटकी है—कीचड़ में।