Murder Of Krishnanand Rai:यूपी का खूंखार माफिया डॉन मुख्तार अंसारी अब इस दुनिया में नहीं रहा। मुख्तार अंसारी के नाम यूं तो 60 से ज्यादा केस दर्ज थे, लेकिन सबसे ज्यादा जो चर्चा होती थी, वो थी विधायक कृष्णानंद राय की (BJP MLA Krishnanand Rai Murder Story in Hindi) हत्या की। इस मर्डर मामले में गाजीपुर की एमपी-एमएलए कोर्ट ने गैंगस्टर केस में मुख्तार अंसारी को 10 साल की सजा सुनायी थी, वहीं उसके खिलाफ 5 लाख रुपये का जुर्माना भी लगाया है. वहीं उनके भाई सांसद अफजाल अंसारी को भी कोर्ट ने दोषी मानते हुए चार साल की सजा और एक लाख रुपये का जुर्माना लगाया था। जिस वक्त ये सजा सुनायी गयी, उस वक्त मुख्तार अंसारी सांसद था, सजा सुनाये जाने के बाद मुख्तार की सांसदी चली गयी थी।

बीजेपी विधायक कृष्णानंद राय की हत्या ने यूपी ही नहीं पूरे देश को हिलाकर रख दिया था. जानते हैं उस दिन क्या हुआ था. आज से 19 साल पहले 29 नवंबर 2005 को गाजीपुर की मोहम्मदाबाद सीट से बीजेपी विधायक कृष्णानंद राय अपना काफिला लेकर भांवरकोल ब्लॉक के सियाड़ी गांव में एक क्रिकेट टूर्नामेंट का उद्घाटन करने गए थे। गांव ज्यादा दूर नहीं था तो उस दिन वह अपनी गुलेट प्रूफ गाड़ी नहीं ले गए थे। जब वह कार्यक्रम से लौट रहे थे तो बसनिया चट्टी के पास घात लगाए हमलावरों ने उनके काफिले पर हमला कर दिया था। हमलावर ने एके-47 से अंधाधुंध फायरिंग कर दी थी। कई मिनट तक पूरा इलाका गोलियों की आवाज से गूंजता रहा था। कहते हैं कि उन्होंने करीब 500 राउंड फायरिंग की थी। हमलावरों ने कृष्णानंद राय के शरीर को गोलियों से भून दिया था।

बताया जाता है कि उनके शरीर से 60 से भी ज्यादा गोलियां मिली थीं। इतना ही नहीं उन्होंने बीजेपी नेता की शिखा भी काट दी थी. इस हमले में उनके काफिले में शामिल 7 लोगों को नृशंस हत्या कर दी थी. इस हमले में मुख्तार अंसारी और उनके भाई अफजाल अंसारी को आरोपी बनाया गया था. बताया गया कि इस हत्याकांड के पीछे चुनावी रंजिश वजह थी. दरअसल मोहम्मदाबाद विधानसभा क्षेत्र मुख्तार और अफजाल अंसारी के प्रभाव वाली सीट थी लेकिन 2002 जब चुनाव हुआ तो कृष्णानंद राय ने अफजाल अंसारी को हराकर उस सीट पर कब्जा कर लिया था. ऐसा कहा जाता है कि इसी के बाद दोनों भाइयों ने कृष्णानंद राय को जान से मारने का मन बना लिया था. हालांकि जब यह हत्याकांड हुआ उस समय मुख्तार अंसारी जेल में था.

तत्कालीन बीजेपी विधायक कृष्णानंद राय सहित कुल 7 लोगों को गाजीपुर में गोलियों से छलनी कर दिया गया था। इस वारदात के बाद से ही गाजीपुर की राजनीति बदल गई. मोहम्मदाबाद विधानसभा सीट से कृष्णानंद राय की पत्नी अलका राय उपचुनाव में भाजपा के टिकट पर विधायक होती आ रही हैं. तो मुख्तार अंसारी के बड़े भाई अफजाल अंसारी ने विधायकी छोड़ संसदीय चुनाव लड़ना शुरू कर दिया. मामले की दोबारा जांच के लिए प्रार्थना पत्र मिलने पर मुख्तार अंसारी के खिलाफ यह मामला सीबीआई कोर्ट में अभी भी चल रहा है.

पंजाब की रोपड जेल से मुख्तार अंसारी को यूपी लाए जाने की मांग करते हुए कृष्णानंद राय की पत्नी अलका राय ने दो से तीन बार कांग्रेस की राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा को पत्र भी लिखा था. लेकिन अलका राय बताती हैं कि कभी भी उनके किसी भी पत्र का जवाब नहीं आया. जबकि उन्हें उम्मीद थी कि एक महिला होने के नाते प्रियंका गांधी उनकी फरियाद सुनेंगी. अलका राय का आरोप है कि पंजाब की कांग्रेस सरकार ने मुख्तार अंसारी को संरक्षण दिया. इतना ही नहीं पंजाब सरकार के जेल मंत्री भी चुपके से लखनऊ आकर मुख्तार अंसारी के परिवार से मिल चुके हैं.

67 गोलियां विधायक के शरीर में धंसी थी, चोटी तक काट ली थी

सैकड़ों राउंड गोलियां चल चुकी थीं। छलनी हो गई थी पूरी गाड़ी। अंदर बैठे सारे लोगों के ज़िस्मों में इतनी गोलियां पैबस्त हो गई थीं कि अब किसी चमत्कार की भी उम्मीद नहीं थी। लेकिन, शूटर्स का काम पूरा नहीं हुआ था। उनमें से एक गाड़ी के बोनट पर चढ़ा और फिल्मी स्टाइल में ऊपर से कृष्णानंद राय के बेजान शरीर पर फायरिंग करने लगा। इतने से भी मन नहीं भरा उसका। नीचे उतरकर उसने कृष्णानंद राय की शिखा काटी और किसी विनिंग ट्रोफी की तरह जेब में रख ली।

2006 में ज़िला पंचायत और ब्लॉक प्रमुख के चुनाव होने थे। गाजीपुर ज़िले में बीजेपी के इकलौते मौजूदा जनप्रतिनिधि थे कृष्णानंद राय। जिम्मेदारी बड़ी थी उन पर। माफिया मुख्तार अंसारी के भाई अफजाल अंसारी से मोहम्मदाबाद विधानसभा सीट छीनकर उन्होंने पहली चोट दे दी थी। दूसरा बड़ा मौका था आने वाले चुनाव, जिसके ज़रिये गांव-कस्बों तक मुख्तार का असर कम कर पार्टी का प्रभाव फैलाया जा सकता था।

कृष्णानंद राय के छोटे बेटे पीयूष की उम्र थी तब 17 साल। उन्हें 29 नवंबर 2005 का वह दिन अच्छी तरह से याद है। उस दिन दो-तीन कार्यक्रम थे कृष्णानंद राय के। उनमें से एक था गाजीपुर के सिहाड़ी में क्रिकेट टूर्नामेंट का उद्घाटन। रास्ता उबड़-खाबड़ था और बुलेटप्रूफ गाड़ी बेहद भारी। अगर कहीं पंक्चर हो जाए, तो जैक नहीं ट्रक को लगाना पड़ता।

इस बुलेटप्रूफ गाड़ी की स्पेशल परमिशन भी तमाम जद्दोजहद के बाद मिल पाई थी कृष्णानंद को। उन्हें जान का ख़तरा था और यह बात पुलिस और यूपी एसटीएफ को भी पता थी। लेकिन, पीयूष बताते हैं, ‘तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव राजी नहीं हो रहे थे। लेकिन, पुलिस ने माना कि ख़तरा है और उसके बाद डीजीपी से बुलेटप्रूफ गाड़ी की अनुमति मिली।’

उस दिन लेकिन जिस क्षेत्र में जाना था, वहां बुलेटप्रूफ गाड़ी चल नहीं पाती। कृष्णानंद राय ने ज़्यादा सोचा नहीं, एक दूसरी गाड़ी में बैठ गए। साथ में एक और गाड़ी थी, जिसमें उनके एक बड़े भाई और एक छोटे भाई सवार हुए।

सिहाड़ी से लौटते हुए बसनिया चट्टी के पास हमलावरों ने काफिले को घेरा और कुछ समझने से पहले ही शुरू कर दी अंधाधुंध फायरिंग।

पीयूष बताते हैं, ‘पहली गाड़ी में कोई नहीं बचा। सभी 6 लोग मारे गए। पीछे की दूसरी गाड़ी में बड़े पिताजी और चाचा थे। उस गाड़ी में एक मौत हुई। बड़े पिताजी और चाचा नीचे झुक गए थे। उन्होंने हमलावरों को साफ़-साफ़ पहचाना। सारे दुर्दांत और खूंखार शूटर थे – मुन्ना बजरंगी, फिरदौस, अताउर्रहमान उर्फ बाबू, संजीव जीवा, विश्वास नेपाली, राकेश पांडेय उर्फ हनुमान पांडेय। वे चारों तरफ से घूम-घूमकर गोलियां बरसा रहे थे। चाचा और बड़े पिताजी ने उनकी बातचीत भी सुनी। वे आपस में चिल्ला कर बोल रहे थे – इसने बहुत परेशान किया है मुख्तार को। आज छोड़ना नहीं है।’

पीयूष ने बताया कि जिस जीवा की हाल में लखनऊ में पेशी के दौरान कचहरी में हत्या हुई, वही चढ़ा था कृष्णानंद राय की गाड़ी के बोनट पर और फिर उसी ने शिखा काटी।

पीयूष की उम्र इस समय 34 साल है। उस वारदात के बाद से वह भी शिखा रखने लगे और उनके साथ के कई युवा भी। क्या यह किसी तरह की प्रतिज्ञा है?

‘प्रतिज्ञा नहीं, सम्मान कह सकते हैं। लोगों का भरोसा था मेरे पिताजी पर। वह क्षेत्र की जनता के लिए खड़े हुए। बाद में मां ने भी उस भरोसे को निभाया और उस पर खरी उतरीं। उन्होंने डटकर सामना ही नहीं किया बल्कि दो बार हराया भी। मैं पिताजी की याद में शिखा रखता हूं। क्षेत्र के कई युवा भी उन्हीं की याद में रखते हैं।’

लेकिन, जीवा ने शिखा क्यों काटी? इसका एक जवाब है कि अपना खौफ फैलाने के लिए। एक मेसेज कि हमसे डरकर रहो। यही वजह है कि 500 गोलियां झोंक दी गईं। बेजान पड़ चुके शरीरों पर भी अत्याधुनिक हथियारों से आग उगली जाती रही।

2005 के इस खूंरेजी दिन की बुनियाद पड़ी थी 80 के दशक की शुरुआत में, जब गाजीपुर समेत पूर्वांचल के तमाम इलाक़ों में बोलबाला था लेफ्ट का। मुख्तार के भाई अफजाल अंसारी ने भी अपने राजनीतिक सफर की शुरुआत भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से की। 1985 में पहला विधानसभा चुनाव जीता और 2002 तक लगातार जीत हासिल करता रहा, जब तक कि हार नहीं मिली कृष्णानंद राय के हाथों।

कृष्णानंद का परिवार है गोडउर का और मुख्तार अंसारी यूसुफपुर का। कृष्णानंद राय के पिता जगन्नाथ राय ज़मीदार थे और मुख्तार ने फिल्मों के टिकट ब्लैक करने और ठेकों की लड़ाई से आगे बढ़कर क़दम रख दिया था ज़मीनों पर क़ब्ज़े और राजनीतिक पकड़ बनाने पर। दोनों परिवारों का राजनीतिक इलाक़ा एक था और काम करने का अंदाज़ बिल्कुल मुख़्तलिफ़। रास्ते कटने ही थे।

कृष्णानंद पहला चुनाव हार गए थे, लेकिन दूसरी बार उन्होंने अफजल को पटखनी दे दी। विजयरथ रुक गया, लेकिन इसके बाद शुरू हो गया राजनीतिक हत्याओं का दौर। 2002 से 2004 के बीच करीब 32 हत्याएं हुईं कृष्णानंद गुट के लोगों की। तनाव की एक चादर पसर गई थी पूरे इलाक़े पर, जिसे कोई भी महसूस कर सकता था। स्थिति ऐसी थी कि एक चिंगारी भी शोला बन जाती।

ऐसी एक चिंगारी उठी भी। पीयूष को 2002 या 2003 के बीच का कंफ्यूजन है, लेकिन वह सुबह याद है अच्छे से। जाड़ों का मौसम था। धुंध बहुत थी उस दिन। लखनऊ में विधानसभा के सत्र में हिस्सा लेकर सुल्तानपुर होते हुए वापस गाजीपुर लौट रहे थे कृष्णानंद।

ये वो दौर था, जब गाजीपुर से लखनऊ जाने में पूरा दिन निकल जाता। एक्सप्रेस-वे जैसी चीज़ थी नहीं, बस सिंगल लेन सड़क और वह भी कई जगह गड्ढों से भरी। इस दौर में किसी बाहुबली का काफिला दूर से ही पहचान में आ जाता। उस पर अगर काफिला हो मुख्तार अंसारी और कृष्णानंद राय का, तो किसी ग़लतफहमी की कोई गुंजाइश ही नहीं। तब तक मुख्तार ने मऊ में अपनी राजनीतिक ज़मीन तैयार कर ली थी और विधायक हो गया था वहां से।

तो, उस दिन धुंध की वजह से कृष्णानंद की गाड़ियां उस मोड़ से आगे निकल गईं, जहां से मुड़ना था उन्हें। आगे जाकर जब ख्याल आया, तो यूटर्न लिया गया। लेकिन, वापसी की राह में सामना हो गया मुख्तार के काफिले से।

पीयूष के मुताबिक, पहली गोली चली मुख्तार की ओर से। फिर इधर से भी जवाबी फायरिंग की गई। वो छावनी का इलाक़ा था, अगर एक भी गोली सेना के क्षेत्र में चली जाती, तो आर्मी इन्वॉल्व हो जाती।

दोनों पक्षों की ओर से एक-दूसरे के ख़िलाफ़ एफआईआर लिखाई गई। लेकिन, इतना तय था कि यह टकराव फिर होगा।

कृष्णानंद को पता था कि उनकी जान ख़तरे में है। लेकिन, उन्हें यह भी पता था कि अगर उनकी जान लेनी है, तो मुन्ना बजरंगी और जीवा को गोलियां चलानी पड़ेंगी। इन दोनों शूटर्स के अलावा और कोई इस काम को अंजाम नहीं दे सकता। आखिर में उनकी आशंका सही साबित हुई।

कृष्णानंद राय की जीत के बाद जो मुख्तार थोड़ा कमजोर पड़ा था, वो उनकी हत्या के बाद फिर मजबूत हो गया। पीयूष बताते हैं, ‘हमने सीबीआई जांच की मांग की थी, लेकिन तत्कालीन सीएम मुलायम सिंह यादव राजी नहीं हुए। उन्होंने हमारे परिवार के लिए 25 लाख और बाकि मृतकों के परिजनों के लिए 10-10 लाख रुपये की आर्थिक सहायता का ऐलान किया। हमने बाकी परिवारों को रुपये दिला दिए, लेकिन ख़ुद नहीं लिए।’

मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया, जिसके बाद केस दिल्ली ट्रांसफर हुआ और जांच CBI को मिली।

लेकिन, ताकतवर हो चुके मुख्तार के ख़िलाफ़ लड़ना इतना आसान नहीं था। फिर हत्याएं हुईं, गवाह मुकरे। हत्याकांड वाले दिन कृष्णानंद राय जिस क्रिकेट टूर्नामेंट का उद्धाटन करने गए थे, पता चला कि वह भी साजिश थी। पीयूष के मुताबिक, कार्यक्रम के संयोजक शशिकांत राय ने यह आयोजन किया ही था मुख्तार के इशारे पर। बाद में वह गवाह बन गए, लेकिन आरोप है कि तीन साल बाद उन्हें ज़हर देकर मार दिया गया। वह शराब बहुत पीते थे और किसी ने इसी का फायदा उठाया।

गवाहों के मुकरने से केस कमजोर पड़ गया। तीन जुलाई 2019 को कृष्णानंद राय हत्याकांड में एक फैसला आया, लेकिन किसी आरोपी पर अपराध साबित नहीं हुआ। सीबीआई कोर्ट ने माना कि अगर गवाहों को सुरक्षा दी गई होती और गवाहियां हो गई होतीं तो निर्णय दूसरा होता।

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