शिबू सोरेन: बचपन में थे दो नाम, लेकिन दुनिया ने अलग ही नाम से पहचाना, मंत्री रहते बन गये थे भगोड़ा, देना पड़ा था इस्तीफा

Shibu Soren: He had two names in childhood, but the world recognized him by a different name, he became a fugitive while being a minister, had to resign

Shibu Soren Full Story : झारखंड आंदोलन के जननायक शिबू सोरेन का सफर महाजनों के खिलाफ आदिवासियों की लड़ाई से शुरू होकर तीन बार राज्य के मुख्यमंत्री बनने तक पहुंचा। कभी धान काटो अभियान तो कभी संसद में झारखंड बिल के लिए संघर्ष—उनकी पूरी राजनीतिक यात्रा एक जननेता की जीवंत गाथा है।

 

प्रारंभिक जीवन और पृष्ठभूमि

शिबू सोरेन का जन्म 11 जनवरी 1944 को बिहार (अब झारखंड) के हजारीबाग जिले के गोला प्रखंड स्थित नेमरा गांव में हुआ। चार भाई-बहनों में वे दूसरे नंबर पर थे। उनके पिता सोबरन सोरेन गांधीवादी शिक्षक और स्वतंत्रता सेनानी थे, जिन्होंने आजादी की लड़ाई में सक्रिय भाग लिया।

 

शिबू के बचपन में उनके दो नाम थे—शिवलाल और शिवचरण। वे मेधावी छात्र थे लेकिन जीवन की दिशा तब बदल गई जब 27 नवंबर 1957 को उन्हें हॉस्टल में खबर मिली कि महाजनों ने उनके पिता की हत्या कर दी है। उस वक्त शिबू की उम्र मात्र 13 वर्ष थी।

 

महाजनों के खिलाफ संघर्ष और ‘धान काटो’ आंदोलन

शिबू ने अपने पिता की हत्या को व्यक्तिगत क्षति नहीं, सामाजिक अन्याय के रूप में लिया। उन्होंने पढ़ाई छोड़कर महाजनों के खिलाफ लड़ाई को जीवन का उद्देश्य बना लिया। 1970 के दशक में उन्होंने आदिवासियों को सूदखोर महाजनों से मुक्त कराने के लिए अभियान शुरू किया।

 

महाजनों द्वारा जबरन वसूली, ज़मीन कब्जा और धान की लूट के खिलाफ शिबू ने ‘धान काटो आंदोलन’ शुरू किया। उन्होंने आदिवासियों से कहा, “तीर-धनुष उठाओ और खेत से जबरन धान काटो।” युवा तीर-धनुष लेकर खेत की रक्षा करते और महिलाएं फसल काटतीं। ये आंदोलन पूरे क्षेत्र में लोकप्रिय हो गया।

 

एक बार बराकर नदी पार करते समय, जब महाजनों के गुंडों ने उन्हें घेरा, तो शिबू ने बाइक समेत नदी में छलांग लगा दी और तैरकर दूसरी तरफ पहुंच गए। इस घटना को लोगों ने चमत्कार माना और उन्हें “दिशोम गुरु”—यानि “देश का गुरु” कहने लगे।

 

झारखंड मुक्ति मोर्चा की स्थापना

4 फरवरी 1972 को धनबाद में विनोद बिहारी महतो, एके राय, और अन्य सहयोगियों के साथ मिलकर शिबू सोरेन ने “झारखंड मुक्ति मोर्चा” (JMM) की स्थापना की। संगठन का उद्देश्य झारखंड को अलग राज्य बनाना और आदिवासियों को सामाजिक-आर्थिक अधिकार दिलाना था।

 

सरकारी टकराव और भूमिगत जीवन

‘धान काटो’ आंदोलन और महाजनों के खिलाफ उठाए कदमों के कारण शिबू सोरेन पर कई मुकदमे दर्ज हुए। पुलिस उनकी गिरफ्तारी के लिए छापे मारती रही। एक बार धनबाद में भारी पुलिस तैनाती के बावजूद उन्होंने JMM की स्थापना रैली में मंच पर पहुंचकर सबको चौंका दिया और भाषण देने के बाद गायब हो गए।

 

धनबाद के DC केबी सक्सेना, जो शुरुआत में उन्हें पकड़ने के लिए नियुक्त किए गए थे, बाद में उनके समर्थक बन गए और कहा—“आपकी लड़ाई सही है, लेकिन तरीका गलत है। सरेंडर कीजिए वरना किसी दिन गोली के शिकार हो जाएंगे।” 1975 में उन्होंने सरेंडर कर जेल स्वीकार की।

 

झारखंड राज्य निर्माण और निर्णायक संघर्ष

जुलाई 2000 में शिबू सोरेन ने झारखंड राज्य के निर्माण के लिए दिल्ली में विशाल प्रदर्शन किया और सरकार को अल्टीमेटम दिया—“अगर झारखंड राज्य नहीं बना तो कोयले और खनिजों की आपूर्ति बंद कर दी जाएगी।” केंद्र सरकार दबाव में आ गई और 2 अगस्त 2000 को झारखंड राज्य का गठन संसद में पारित हुआ।

 

चिरुडीह मामला और गिरफ्तारी

23 जनवरी 1975 को चिरुडीह में हुए हिंसक संघर्ष में शिबू सोरेन पर भीड़ को भड़काने का आरोप लगा। 2004 में जब वे केंद्र में कोयला मंत्री थे, तभी यह मामला फिर उछला। कोर्ट ने वारंट जारी किया और उन्हें फरार घोषित कर दिया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सलाह पर उन्होंने इस्तीफा देकर समर्पण किया।शिबू एक महीने जेल में रहे और बाद में हाईकोर्ट से जमानत मिली। 2008 में निचली अदालत ने उन्हें सभी आरोपों से बरी कर दिया।

 

मुख्यमंत्री कार्यकाल: सत्ता की अस्थिरता

शिबू सोरेन तीन बार झारखंड के मुख्यमंत्री बने लेकिन कभी भी एक स्थिर कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए:

• पहली बार: 2 मार्च 2005 – 12 मार्च 2005 (10 दिन)

• दूसरी बार: 27 अगस्त 2008 – 18 जनवरी 2009 (5 महीने)

• तीसरी बार: 30 दिसंबर 2009 – 31 मई 2010 (5 महीने)

दूसरी बार जब वे विधायक नहीं थे, तब उपचुनाव में हार गए और इस्तीफा देना पड़ा।

 

व्यक्तित्व और प्रभाव

शिबू सोरेन न सिर्फ एक राजनीतिक नेता हैं, बल्कि वे झारखंडी अस्मिता के प्रतीक भी बन चुके हैं। उनके आंदोलनों की जड़ें जमीन से जुड़ी थीं। वे लोकगीतों के जरिए जनता से संवाद करते थे और तीर-धनुष थामे आदिवासी युवाओं के बीच लोकनायक की तरह उभरते गए।

 

शिबू सोरेन की जीवनी सिर्फ एक व्यक्ति की कहानी नहीं है, यह भारत के आदिवासी आंदोलन, सामाजिक न्याय और क्षेत्रीय स्वाभिमान की भी गाथा है। तमाम संघर्षों, जेल यात्राओं, राजनीतिक बाधाओं और तानाशाही प्रवृत्तियों के बीच उन्होंने यह साबित किया कि अगर इरादे नेक हों तो कोई भी व्यवस्था बदली जा सकती है।

 

दिशोम गुरु, जिन्होंने सूदखोर महाजनों के खिलाफ आवाज़ उठाई, जनता को जगाया, राजनीतिक संगठन खड़ा किया और अंततः एक नए राज्य का सपना साकार किया—इतिहास उन्हें एक योद्धा, समाज सुधारक और जननेता के रूप में हमेशा याद रखेगा।

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